उत्तर काशी के मंदिर से बाहर आये, माताजी बहुत गंभीर थे। माताजी के इस स्थिति को कुछ क्रिया योगी पहचानकर निःशब्द रह गये। सफर के थोड़ी देर बाद हमें पहाड़ों पर, गंगामय्या का दर्शन हुआ। गंगामा के प्रवाह का वैभव, आदि शंकर भग्वदपादुल जी का वर्णित किया, पार्वती माताजी के माँग के सिंदूर के समान सुंदर दिखा। आदि शंकर जी के शब्दों में “परिवाः श्रोतः सरणिव सीमंत सरणि “। माने दो पर्वतों के बीच से प्रवाहित होती सुंदरमय गंगा नदी, पारवती माता के भरी माँग के समान सुंदरमय दिखाई देती हैन। बिलकुल वर्णन के जैसे ही गंगा माँ की सौंदर्यता से चकित रह गये।एक जगह पर दो पर्वतों के बीच में से, पवित्र धारा जैसे उगती हुई गंगामय्या दिखाई दि।भारत भूमी को अपनी लहर से पावन करती, शिवजी के जट से छलांग लगाती, हथेली में तीर्थ बनकर लभ्य होती, जलपातमय होकर, महाप्रवाह बनकर, उछलते प्रवाह होती, कभी उत्तेजित तरंग नृत्य जैसे छलांग लगाती तो कभी महात्माओं के चरण स्पर्श से पूनीतमय होकर, आनंदित लहर से प्रवाह हो रहि गंगा, ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे, और इस दृश्य को देखने केलिए दो आँखें काफि नहीं थी।