यमुनोत्री तक जाने पर भी हम वहाँ स्नान नहीं कर पाए| उसका कारण यह था कि उतना पवित्र नदी को कुछ लोग मलिन कर रहे थे | जहाँ यमुना का उद्भव हुआ, उस पवित्र स्थल पर, पानी में कुछ लोग अपने पहने वस्त्र छोड़ रहे थे ,मनुष्यों का मैल डालना, प्लास्टिक सामान को वहीं पर फेंकना, और लोगों को वहीं विसर्जन करते देख कर, माताजी प्रलय स्वरूपिणी काली माता कि स्तिथि में चले गए | अज्ञान और बिना अवगाहन के नदी को इस भयंकर स्थिति पर लाये मानवों कि अज्ञानता पर चिंतित होकर आधे घंटे तक उन्होंने एकांत मेंं रहने का निश्चय करते टेंट में चले गए | हम सभी मौन रह गये | उस दिन अल्पाहार के बाद माताजी ने कुछ नहीं खाया | तब संध्याकाल का समय था | हम सभी बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे | आधे घंटे के बाद माताजी बाहर आकर , कहे- “चलो चलते हैं ” |
माताजी के मौन का कारण हमे बताते हुऐ कहे, “ तीन जन्मों के उपरांत मैं ने यमुनोत्री को देखा | अभी इस नदी को इतना मैला होते देखकर मुझे बहुत दुख हुआ” |माताजी को इससे एक तरह का अघात लगा| उस दिन सुषुम्ना क्रिया योगियों को उन्होंने सूचना दिया कि अगर नदियों या पुश्करों या समुद्र पर स्नान करने गए तो, उनमें कपडे को छोड़ना बहुत पाप है | सुषुम्णा क्रिया योगी होते हमे कभी भी प्रकृति को अनियंत्रित नहीं करना चाहिए। अगर हमें हो सके तो अपने परिवार के सदस्यों को भी अवगाहन करने कि प्रत्यन करनी चाहिए | इस के बाद यात्रा फिर से प्रारंभ किये | सुर्यास्थ होने लगा | माताजी पैदल चलने का प्रस्तावन करे । लेकिन सभी ने माताजी को डोली पर चढवाया। कुछ शिष्य माताजी के डोली के पीछे जल्दी पैदल चल पडे।कुछ थकावट और पैरों के दुखने के कारण आहिस्ता चल रहे थे । कुछ समय बाद आहिस्ता चलने कि वजह से राह भटक गये । न जाने कहाँ से एक शुनक आकर राह दिखाया । उसे हमने काल भैरव का रूप समझकर नमस्कार अर्पित किया।युमुनोत्री कि ऊचाइयों पर चढ़ते वक्त ,कयी यात्री वहां पर दिखे। लेकिन नीचे उतरते समय कहिं-कहिं कोयी नहीं दिखाई दिया।
उस दिन एक अनोखा अनुभव हुआ।चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत, महावृक्ष,जल पात,घाटियों के खायी,तेज से प्रवाह होने वाली नदि, इत्यादि प्राक्रतिक शक्तियों कि अत्यंतता का एहसास हुआ। उनके बीच अचंभा खडे होकर, अपनी सूक्ष्मता कि साक्षी बने रहे । अकेला होने के बावजूद वहां पर हमें ना मृत्यु का भय था और ना
अग्यात का डर । बहुत धैर्य से आगे बढने लगे।वैसे अनुभव हो रहा था जैसे कोयी अदृश्य शक्ति हमें रक्षा कर रही थी।
“फूल के हृदयाघात में ब्रहमर का मंदराना जैसे ओंकार…
सुप्रभात में सूर्योदय कि खुशी में पक्षियों के घुंचना का अनुभव जैसे मानो ऐंमकार…
नन्हें बच्चों के कानों में गूंजते हुए लोरी सुनाती हवा मानो ग्रींकारं …
अथवा पहाडियों कि छोटियों से टपककर झरने कि चाल-चलन मानो श्रीमकार..”
ये बीजाक्षर से वर्णित करते, ब्रह्मांड के कवि के गायन को याद करते, वहां कि सौंदर्यता का प्रणाली समर्पन करते, मन ही मन आनंदित होते हुए, हम बस में बैठकर हरशिल पहुंचे।