पूज्य श्री आत्मानंदमयी माताजी

“दिव्य बाबाजी सुषुम्ना क्रिया योग प्रतिष्ठान” की संस्थापिका माँ एक दिव्य गुरु हैं - जिन्होंने परम गुरू श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर द्वारा प्रेरणा पाकर चिरयुवा स्वर्ण-देह धारी परम गुरू श्री श्री श्री महावतार बाबाजी की उपस्थिति में गणेश-चतुर्थी के पावन दिन, 7 सितम्बर, 2007 बुधवार को ब्रह्म-मुहूर्त (सूर्योदय से पहले के शुरुआती घंटे) में सुषुम्ना क्रिया योग की शुरूआत की. दोनों गुरुओं की आज्ञा से पूज्य श्री आत्मानंदमयी माताजी ने सुषुम्ना क्रिया योग साधकों को ज्ञान और मुक्ति का मार्ग दिखाने का कार्य शुरू किया. वे एक गृहस्थ का साधारण जीवन जीती हैं, एक गृहिणी के रूप में अपने सभी कर्तव्यों का पालन करती हैं और दुनिया और अपने सभी शिष्यों के लिए इस बात का जीता-जागता उदाहरण हैं, कि व्यक्ति को ज्ञान और मुक्ति (मोक्ष) पाने के लिए हिमालय पर जाने या सांसारिक जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेने की जरूरत नहीं है. एक सामान्य पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए भी मनुष्य ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं, और सच्चे आनंद (आत्मानंद) की अनुभूति कर सकते हैं. वे एक मां की तरह अपने सभी शिष्यों को प्यार करती हैं और उनके आध्यात्मिक विकास के लिए कठिन प्रयास करती हैं. वे सीधे तौर पर सभी सुषुम्ना क्रिया योग ध्यान साधकों से जुडी हैं और उनके किसी भी संदेह के निवारण और आध्यात्मिक पथ में उन्नत मार्गदर्शन के लिए के लिए सदा सुलभ हैं. वे बताती हैं कि आध्यात्मिक दुनिया और भौतिक संसार के बीच विवेकपूर्ण तरीके से संतुलन होना चाहिए. उनका दावा है कि सुषुम्ना क्रिया योग ध्यान प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक अनिवार्य उपकरण है, ताकि वह आसानी के साथ आधुनिक जीवन की प्रतिदिन की चुनौतियों का सामना कर सके और अंततः आत्मानंद (चिरस्थायी परमानंद) प्राप्त कर सके.

श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर

सुषुम्ना क्रिया योग के अलौकिक निर्माता

परम गुरू श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर अठारह पवित्र सिद्धरों में से एक हैं. प्राचीन संन्यासियों की पुस्तकों से पता चलता है कि श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर का जीवनकाल बारह हजार से भी अधिक साल का रहा, यहां तक कि कलियुग की शुरुआत से पहले से ही वह शुरू हो गया था. उन्होंने अपने श्रद्धेय गुरू श्री श्री श्री कलिंगनाध सिद्धर से ध्यान प्रथा के सभी रूपों पर दीक्षा (उपदेश) प्राप्त की. अपनी आध्यात्मिक शिक्षा के ही एक भाग के रूप में, वे कायाकल्प चिकित्सा के एक विशेषज्ञ (किसी के जीवन काल को बढ़ाने के लिए) बन गये. भगवान सुब्रमण्यम के पवित्र अनुग्रह को प्राप्त करने के उद्देश्य से श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर ने श्री सथुरागिरी और शिवगिरी की पहाड़ियों पर तपस्या शुरू की. 14 वर्ष की उम्र में श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर का कोत्रालम नामक जगह पर भगवान सुब्रमण्यम से "साक्षात्कार"(उनकी छाया से) हुआ. बाद में उन्होंने भारत में तमिलनाडु के पलानी हिल्स में जाने से पहले श्रीलंका में कंडी कतिर्गमम में अपने अभ्यास को स्थानांतरित कर दिया, जहां उन्होंने कई वर्षों के लिए योग और ध्यान का अभ्यास किया. श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर ने पलनी में भगवान सुब्रमण्यम की नवपाशना मूर्ति को बनाया और स्थापित किया. कतिर्गमम में श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर ने श्री श्री श्री महावतार बाबाजी को क्रिया योग साधना का अभ्यास शुरू करने की प्रेरणा दी. कलियुग की शुरुआत से पहले श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्धर ने, आम आदमी को अज्ञान के अंधेरे रुपी कफन और माया रुपी लबादे - जो अपने सांसारिक अस्तित्व से मानव को भटकाते रहते हैं – से उसके उत्थान के उद्देश्य से कई आध्यात्मिक गुरुओं के साथ विचार विमर्श के माध्यम से अपने विचारों को उन तक पहुँचाया. एक बड़े पैमाने पर इस तरह के दैवी प्रशिक्षण के परिणामस्वरुप सुषुम्ना क्रिया योग ध्यान का जन्म हुआ, जो हमें हमारी अंतरात्मा को जगाने और हमें परमानंद की स्थिति - भगवान के साथ एकाकार होने - को पाने में मदद करती है.

श्री श्री श्री महावतार बाबाजी

गौतम बुद्ध ने अपने निर्वाण से कुछ समय पहले, 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में, भविष्यवाणी की थी कि आने वाले समय में उनकी शिक्षाओं को विकृत किया जाएगा और 500 साल के भीतर उन्हें खो दिया जायेगा. 800 साल में एक व्यक्ति फिर से उन्हें खोजकर संरक्षित करेगा और उस व्यक्ति का नाम “नाग” शब्द से संबंधित होगा. वर्ष 203, नवंबर माह के 30वें (कार्तिक पूर्णिमा) दिवस पर, भारत के तमिलनाडु राज्य के एक छोटे से गांव, परंगीपेट्टाई में एक बच्चे का जन्म हुआ. इस बच्चे का नाम नागराज रखा गया, जो बाद में एक महान सिद्ध योगी हुए, जिन्हें आज बाबाजी के रूप में जाना जाता है. गांव के मुख्य पुजारी के पुत्र होने के कारण अपने प्रारंभिक वर्षों में नागराज अपने माता-पिता की निजी धार्मिक क्रियाओं और मंदिर जीवन से जुड़े सार्वजनिक समारोहों और प्रथाओं से काफी प्रभावित रहे.

जब नागराज पांच वर्ष का बच्चा था, तब एक अपहरणकर्ता उसे कलकत्ता एक नाव पर ले गया और उसे एक अमीर आदमी को दास के रूप में बेच दिया. उसका मालिक एक दयालु आदमी था और उसने नागराज को गुलामी से मुक्त करके स्वतंत्रता दे दी. ग्यारह वर्ष की उम्र में नागराज ने विद्वान संन्यासियों के एक समूह के साथ बनारस से कातीर्गामा, श्रीलंका के एक पवित्र मंदिर तक जाने के लिए पैदल और नाव के द्वारा एक लंबी और कठिन यात्रा की. नागराज ने कतिर्गमम में भोगनाथ सिद्धर से मुलाकात की और उनके शिष्य बन गए. एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे बैठ कर नागराज ने भोगनाथ सिद्धर से क्रिया योग के अभ्यास में आध्यात्मिक दीक्षा प्राप्त की. श्री श्री श्री भोगनाथ सिद्दर के मार्गदर्शन में विभिन्न योग और ध्यान प्रथाओं के सख्त और लंबे समय तक अभ्यास के बाद, सोलह साल की उम्र में वे प्रभु के साथ एकरूप हो गये. उसके बाद उन्होंने सदियों से अपने इस भौतिक शरीर को अमर बना कर बरकरार रखा है. हालांकि, वे हिमालय में अदृश्य रूप में रहते हैं और अपने लाखों भक्तों का उनकी आध्यात्मिक खोज में मार्गदर्शन करते हैं. अपने शिष्यों की खातिर आवश्यकता पड़ने पर वे उनके लिए उपयुक्त रूप में प्रकट हो जाते हैं.